Wednesday, October 27, 2021

ट्रेन आखिरी छोर और जौन (सार्थक)

कई मील तक फैली एक बंजर जमीन के बाद एक सिरे पर आकर नदी शुरू होती है। तभी ट्रेन के भीतर बैठे एक शख्स को उस नदी की एक तस्वीर लेने का खयाल आता है वो फोन निकालता है। कैमरा खोलते खोलते नदी का एक चौथाई सफर गुजर गया है फिर जल्दी जल्दी में वो कुछ दो चार तस्वीर खींच लेता है। जिसमें से एक दो ठीक ठाक आ भी जाती है पर तस्वीर लेते हुए ये एक चौथाई सफर कब आधे से ज्यादा सफर में बदल जाता है पता नहीं चलता। बचे हुए आधे सफर में वो नदी को एक-टक देखता रहता है। पर कुछ देर में ही नदी पूरी खत्म हो जाती है वापस से एक जमीन शुरू होती है पहले की तरह ही बंजर। पर जब तक हो सके तब तक वो कोशिश करता है नदी की तरफ ही देखने की। आखिर एक मोड़ पर आकर नदी दिखना बंद हो जाती है। अब हर तरीके से उचित तर्क के हिसाब से जमीन को जमीन की तरह से ही देखा जाना होता है पर अब भी वो एक नदी के भ्रम में जमीन को जमीन कम एक नदी की तरह से ही देखता रहता है।

इस बीच रास्ते में आई कई और बेहतर चीजों को तो वो छोड़ता ही है। पर हद तब हो जाती है जब एक सफर के दौरान मिली हुई नदी किसी मंजिल पे पहुंचने के लिए किए जा रहे सफर की उस मंजिल से भी बड़ी हो जाती है। वो उस नदी के ख्याल को लेकर अडिग रहता है सब जानते समझते हुए भी वो जिस जगह पर उतर जाने के ख्याल को लेकर चला होता है वहां उतरने के बजाय वो चलता रहता है कुछ हो जाने के इन्तेज़ार में।

आखिर ट्रेन एक मुहाने पर आकर रुकती है रफ्तार में कमी के साथ उसके नशे में भी कमी आती है वो वापस जाने के लिए वापसी की ट्रेन का इन्तेज़ार करता है पर अचानक आप को उसको पता चलता है अब यहाँ से वापसी का सफर नहीं है इसलिए ही पिछले दस स्टेशन पर चीख चीख कर उतरने की नसीहत पहले ही दी जा चुकी होती है बात सुनते ही वो कुछ पल के लिए सुन्न हो जाता है और तभी वहाँ मौजूद एक शख्स जौन का एक शेर गुनगुनाता है 

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उस की उमीद-ए-नाज़ का हम से ये मान था कि आप
उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई

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saarthaak.blogspot.com


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